शनिवार, मई 26, 2018

परदेस में बैठ कर देश की गर्मी की याद!


कनाडा में रहते हुए इतने बरस बीत जाने के बाद भी गर्मी का नाम सुनते ही भारत का मई, जून का महिना याद आने लगता है. जहाँ भीषण लू याद आती है तो वहीं कूलर और एसी की मस्त ठंडक भी. मच्छरों के डंक याद आते हैं तो साथ ही हिट, ऑल आऊट की टिक्की और कछुआ छाप अगरबत्ती का धुँआ भी याद आता है. बाद में तो खैर जब लोगों ने सारे खेल फोन और कम्प्यूटर पर खेलना शुरु कर दिये तो बेडमिंटन के रेकेटनुमा औजार लिए चट चट मच्छर मारते लोग नजर आने लगे थे. शायद प्रकृति ने लोगों को खेल की याद दिला कर स्वस्थ रहने का संदेश इसी बहाने भेजा हो वरना तो खेलकूद लोगों के जीवन से बाहर ही होता जा रहा है. गनीमत बस इतनी है कि अभी जिम जाने का और मैराथन दौड़ने का नया फैशन फोन पर ही जिम कर लेने और मैराथन दौड़ने में नहीं बदला है.
हालांकि नित गर्मी में एसी से निजात पाने के लिए पेड़ लगाने के जितने संदेशे व्हाटसएप से आ रहे हैं उतनी कोशिश अगर संदेश फॉरवर्ड करने की बजाये वाकई पेड़ लगाने की होती तो अब तक करोड़ों वृक्ष लग चुके होते. इस नये जमाने में सोशल मीडिया का वर्चूयल समाज हमारे एक्चूयल समाज पर अपनी फोटोशॉपिक पैकेजिंग लगा कर बैठ गया है. किसी के पास अब पैकेजिंग हटाकर असली माल देखने का समय नहीं है. जो दिखता है वो बिकता है बस!!
खैर, बात गरमी की चल रही थी तो गरमी के नाम से जहाँ आम, खरबूजा, तरबूजा, जामुन, लीची याद आते हैं, वहीं हमारे समय के लोगों को बेल का शरबत, आम का पना और गाजर की कांजी भी याद आती है. हाल के समय में जिस तरह अचार और पापड़ ने अधिकतरों घरों की छत और आंगन को छोड़ कर बाजार में शीशीयों और प्लास्टिक के पैकेटों में जगह बना कर जिन्दगी बचाई है, शायद कल को बेल का शरबत, आम का पना और गाजर की कांजी टेट्रा पैक में बिकती नजर आये वरना नई पीढ़ी इन्हें भूलकर कोक और आरेंज ही याद रख पायेगी. बाजार समाज पर हाबी है और वही तय करता है कि क्या रखवाना है और क्या भुलवाना है?
मगर गर्मी के नाम पर अब मौसम के साथ साथ देश की और ढ़ेर सारी गर्मियाँ भी याद आ जाती हैं. जैसे पैसे और पावर की गर्मी. इस गर्मी का हाल तो यह है कि ये गर्मी जिसे होती है, वो तो ऐश काटता है और परेशान सामने वाला होता है. जिससे पैसे कमा कर और जिनके कारण पावर मिला है, वही इसकी गर्मी में झुलसता है. इस गर्मी का हाल यह है कि मैं ही तुमको तलवार बना कर दूँ और तुम मेरा ही गला रेत कर उसकी धार चैक करो.
एक गर्मी ऐसी होती है जिसे सरगर्मी कहते हैं. यह अक्सर चुनावों में देखी जाती है. चुनाव की सरगर्मी ऐसी गर्मी होती है जिसमें सभी आनन्दित होते हैं क्या नेता और क्या प्रजा. हर नेता को यह विश्वास रहता है कि वो जीत रहा है और जनता हर नेता से कहती है कि हम तुम्हारे साथ है, बस तुम ही जीत रहे हो और इसकी एवज में नगद, दारु, कम्बल, खाना और जाने क्या क्या बटोर लेते हैं. इस गर्मी को शायद दो वजहों से सरगर्मी कहा गया होगा. एक तो जब यह गर्मी चढ़ती है तो सबके सर चढ़ती है. फिर जब चुनाव हो जाते हैं और यह उतरती है तो जीता हुआ नेता सर उठाकर इतना उपर देखने लगता है कि उसे अपने जिताने वाले भी नजर आना बंद हो जाते हैं और हारे नेता मय जनता के अगले पांच साल तक अपना सर धुनने को बाध्य हो जाते हैं कि यह क्या कर डाला हमने गर्मी के आगोश में आकर?
शायद इसीलिए बुजुर्गों के द्वारा मना किया गया होगा कि जब गुस्से की गर्मी चढ़े या दारु की और जब तुम अपना आपा खो चुके हो इस गर्मी के चलते तो चुपचाप जाकर सो जाओ और जब गर्मी उतर जाये, तब सोच समझ कर निर्णय लेना मगर सरगर्मी के दौर में क्या करना है वो तो बुजुर्ग भी न बता कर गये तो सर धुनने के सिवाय करें भी तो क्या करें?
काश!! लोकतंत्र की इस चुनावी सरगर्मी की काट के लिए भी कोई एसी बनें तो राहत मिले मगर आने वाले दिखते समय में तो ऐसे किसी अविष्कार की आहट दिखती नहीं है मगर इन्तजार करने के सिवाय उपाय भी क्या है?
आहट तो विकास की भी नहीं दिखती है मगर सब मिलकर इन्तजार तो कर ही रहे हैं न!!
अंदर की बात बताऊँ तो एक बार एक नेता की आँख में किसी गैर की मौत पर सचमुच के आंसू देखे थे..आश्चर्य तो हुआ था मगर तब से मानने लगा हूँ कि कभी कभी करिश्मा भी हो ही जाता है अतः विश्वास नहीं खोना चाहिये!!
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मई २७, २०१८ के अंक में:

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