रविवार, मार्च 11, 2018

सिर्फ पाप का नहीं, धर्म का घड़ा भी फूटता है


हमें बचपन से सिखाया जाता है कि किसी की मदद करना हमारा धर्म है. याने कि अगर कोई गिरा मिल जाये तो उसे हाथ बढ़ा कर उठाना चाहिये. हम धर्म के निर्वहन के लिए इतने आतुर हो जाते हैं कि कई बार तो किसी को गिरा ही इसलिए देते हैं ताकि उठा पायें. आखिर धर्म भी तो निभाना है तो उसके लिए मौका भी बनाना है.
सरकार भी हम ही जैसे लोगों से बनती है. वो भी बचपन से यही सीखते हुए बड़े होते हैं. अतः जनता पर १०० परेशानियों का बोझ पहले डालते ही इसलिए हैं ताकि उसमें से ५-१० को उठा कर जनता को राहत महसूस करा कर धर्म का निर्वहन करें. धार्मिकता का पाखंड लंठई की लफ़्फ़ाजी पर सदैव भारी पड़ता है. अतः जनता सारी परेशानी भूल कर हल्की सी राहत से प्रसन्न हो जाती है और सरकार यथावत अपने परेशानी परोसने और राहत पहुँचाने के कार्यक्रम में आमजन को उलझा कर अपना और अपनों का खजाना भरती रहती है. १० पैसे पेट्रोल का दाम बढ़ा कर २ पैसे कम देने का तमाशा हम बरसों से देखते आ रहे हैं.
वैसे सच तो यह है कि जहाँ एक ओर गिरे को उठाना हमारा धर्म है, वहीं उठे को गिराना हमारा डीएनए है. हमारा धर्म और डीएनए हर कोण से एक दूसरे का परस्पर विरोधी होते हैं. हम उजाले में धर्म के नाम पर जितने कार्य करते हैं, अँधेरे में ठीक उसके विपरीत अपने डीएनए के गुलाम हो जाते हैं. सारे बाबा दिन भर धर्म का ज्ञान बांटते हैं और पीठ पीछे रंगरेलियाँ मनाते हैं. धर्म के नाम पर भक्तों को बेवकूफ बनाकर अपना पूरा एम्पायर खड़ा कर लेते हैं. आजकल कितने ही बाबा इस चक्कर में जेल यात्रा पर हैं और कितने ही वेटिंग लिस्ट में अपना नम्बर आने का इन्तजार कर रहे हैं. इनकी हालत देखकर मुहावरे ही बदल देने का मन हो आता है. कभी पाप का घड़ा फूटा करता था, आज धर्म का घड़ा फूटता है.
इसी डीएनए के चलते हम आदतन गिराने का ही काम करते हैं. लोगों का मनोबल गिराते रहते हैं. यह कहने की बजाये कि तुम कोशिश करो, सफल हो जाओगे अक्सर हम हतोत्साहित करते हैं. कोई बच्चा आईएएस बनने की इच्छा जाहिर करता है तो कह देते हैं कि ये तुम्हारे बस का नहीं, क्यूँ समय खराब करते हो. चुपचाप फलानी नौकरी मिल रही है ले लो वरना इससे भी हाथ धो बैठोगे. अगर वो मान जाये तो हम खुश और न माने और फेल हो जाये तो दस बार कोसने को तैयार कि हमने तो पहले ही कहा था. अब लेओ, दोनों हाथ से निकल गई.
कुछ पदों की मांग पूरी न होने पर लोग पूरी सरकार तक गिरा देते हैं और देश को चुनाव का भार और खर्च वहन करने को मजबूर कर देते हैं. जहाँ प्रयोजन करने में तकलीफ उठानी पड़ती है, मेहनत करनी पड़ती है वहीं डीएनए जनित कार्यों को करने में आनन्द का अहसास होता है. धार्मिक कार्य करना हमारे लिए प्रयोजन है इसीलिए किसी को उठाने के दिखावे में कुछ तकलीफ उठानी पड़ती है. वहीं किसी को गिराने में हम आन्नदित हो उठते हैं. कई बार तो इसी डीएनए के चलते हम खुद को ही इतना गिरा देते हैं कि खुद की नजरों में गिर जाते हैं. फिर खुद को इस बोझ से मुक्त करने के लिए धर्म का सहारा लेकर हरिद्वार जाकर गंगा स्नान कर सारे पाप धोकर खुद को फिर से अपनी नजरों में उठा लेते हैं भले लोग पापी ही समझते रहें.
धर्म अधर्म हम खुद ही तय करते हैं और उसी की दुहाई देते हुए जिन्दगी गुजार देते हैं.
इसी गिराने के डीएनए की कड़ी में हाल ही में महापुरुषों की प्रतिमायें गिराने का सिलसिला शुरु हुआ है. शर्म तो जब हमें धार्मिक स्थलों को गिराने में न आई, तो भला महापुरुषों की प्रतिमायें गिराने में क्या आयेगी?
आस्था का ध्रुवीकरण कुछ ऐसा हो गया कि अगर तुम्हारी आस्था के प्रतीक किसी महापुरुष की मूर्ति तुम्हारी सरकार के वक्त बीच चौराहे पर लगी थी तो हमारी सरकार के आते ही हम उसे गिरा देंगे..महापुरुषों के योगदान को भी मानव जाति, राष्ट्र और विश्व से अलग हटाकर आस्थाधारकों की पार्टी लाईन से जोड़ दिया गया है. बदले की भावना इतनी बलवती हो गई है कि तुम मेरी आस्था को गिराओ, मैं तुम्हारी को गिराऊँगा. लेनिन गिरे हैं तो गाँधी, अम्बेडकर, पेरियार सबकी आफत आन पड़ी. उन्हें भी गिरा दिया गया. महाराणा प्रताप, लक्ष्मी बाई आदि जैसे योद्धा अंडर ग्राऊन्ड होने की तैयारी में लग लिये होंगे कि कौन जाने कब उन पर कहर बरस जाये?
अब तो माहौल देखकर ऐसा लगता है कि प्रतिमायें भी मोबाईल होनी चाहिये. प्रतिमा और जीते जागते इन्सान में यही तो फरक है कि प्रतिमा बेईज्जति होने पर न तो खुद से हट नहीं सकती या न ही कोई उन्हें उठाकर मार्गदर्शक मंडल में ले जाकर नहीं बैठाल सकता है.
काश! इन प्रतिमाओं को पैर न सही, पहिये लगा कर स्थापित किया जाये. कल जब इनमें आस्था रखने वालों की सरकार चली जाये तब वे सरकार से जाते जाते अपने महापुरुषों को भी साथ लेते जायेंगे और फिर जब कभी सरकार बनी तो वापस लेते आयेंगे.
सरकार का आना जाना अब महापुरुषों की महापुरुषाई तय करने लगा है. तब ऐसे में इसके सिवाय तो कोई रास्ता नजर नहीं आता. आप को कोई और उपाय सूझे तो बतायें...
प्रतिमाओं का इस तरह गिराया जाना, यह एक संकटकाल है जिससे सिर्फ देश ही नहीं, हमारी मानसिकता गुजर रही है...इसका उपाय जरुरी है वरना जल्द ही यह नासूर बन जायेगा!!
-समीर लाल समीर 
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार मार्च ११, २०१८ को प्रकाशित:

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2 टिप्‍पणियां:

arpitsadhanapal ने कहा…

बिल्कुल सही कहा दिल से मानना और किसी चीज का दिखावा करके अति करना अच्छा नहीं होता है।
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बेनामी ने कहा…

ये नासूर तो नहीं लेकिन time bomb ज़रूर बन गया है एक दिन फटेगा और सब को तबाह कर देगा, सुनते हैं आज़ादी के वक़्त बहुत नफ़रत फैली थी, दोनो तरफ़ बहुत ख़ून ख़राबा हुआ था, पर उस वक़्त लोग जान बचाने के लिए उस पार से इस पार और इस पार से उस पार भाग लिए थे, पर इस बार जो नफ़रत फैली है उस में भागने को भी जगह नहीं है। इस बार तो हिन्दुओं को भी हिंदूँ के ख़िलाफ़ कर दिया गया। जयपुर में कई साल बाद कर्फ़्यू लगा बार, मोबाइल इंटर्नेट सेवा बंद हो गयी (मज़े की बात है वो भी एसी सरकार के द्वारा जो की मोबाइल इंटर्नेट और सोशल मीडिया से ही चलती है)