सोमवार, जनवरी 08, 2018

रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ...


भारत छोड़े तो दो दशक हुए मगर याद करता हूँ वो समय जब पड़ोस के घर में अगर हिजड़े नाच जाते थे तो सास अपनी बहु को जला कटा सुनाना न भूलती थी. देख तो इस कलमूही को..इसके चलते तो हिजड़े भी हमारे घर नहीं झांकते...न जाने, जीते जी पोते को गोद में खिला भी पायेंगे कि नहीं. नाश पिटे इसका...
बताओ भला!! बच्चा होना है पड़ोसी के यहाँ..हिजड़े नाचे पड़ोसी के यहाँ..उनको चढ़ावा चढ़ाया प़ड़ोसियों ने...और जली कुटी सुनी घर की बेकसूर बहु ने...जिसका कसूर महज इतना सा है कि वो इस घर के उस बेटे से ब्याही है जिस पर पूरा घर यह विश्वास साधे हैं कि वो वंश आगे बढ़ा सकता है मगर जो रिपोर्टें बहु की डॉक्टर बता रहे हैं कि वो एकदम नार्मल है, वो गलत हैं. वो अपने बेटे में खामी न तो सोच सकते हैं और न ही किसी डॉक्टर से उसके विषय में सलाह लेने की जरुरत समझते हैं. खैर, उनकी बात और सोच उनको मुबारक ..हमें तो जमाना गुजरा देश छोड़े. हम काहे पड़े इन झंझटों में.जिसके घर जिसे नाचना हो वो नाचे, जिसके घर जिसे कोसना हो वो कोसे. हमारी बला से.
मगर यह सब याद क्यूँ आया मुझे? दरअसल, कल सुबह से मन कर रहा है कि कैसे मूँह छुपायें? कैसे सारे पहचान वालों से बच जायें? कैसे उन पहचान वालों के प्रश्न मेरे कानों तक नहीं पहुँचें.. यह तमाशा शुरु हुआ पुस्तक मेले के साथ...जो कि एक सालाना जलसा है..
जितने साथी उतनी पुस्तक..उतने आमंत्रण...जिसे देखो वो ही बोल रहा है कि फलानी तारीख को हमारे स्टाल पर मेरी पुस्तक के लोकार्पण में आपको जरुर आना है..आप आयेंगे तो मुझे खुशी होगी..
मन कहता है कि खुशी तो हमें भी होगी मगर भारत यात्रा की टिकिट...वो कौन खरीदेगा? १५०० डॉलर अगर बड़ी रकम न भी लगे तो कम भी नहीं कही जा सकती. है न? वैसे जब निमंत्रण और आमंत्रण का जखीरा देखा, गिना, आंका तो लगा कि अगर हर आमंत्रणकर्ता अपने आमंत्रण के साथ मात्र २५० रुपया याने ५ डॉलर बतौर आने का शगुन भेज देता तो आमंत्रण की संख्या देखते हुए, न सिर्फ आने जाने ठहरने का खर्च निकल जाता, बल्कि उनकी किताब खरीद कर झोला भरने का भी झंझट निपटा देता...ये दीगर बात है कि उतना वजन लाद कर लाना तो एयर लाईन अलाऊ न करती तो बिना पढ़े उसे वहीं छोड़ कर आना पड़ता...मगर वो तो वैसा ही है कि जो किताबों को घर लाद के ले जा रहे हैं, वो ही कौन सा पढ़ ले रहे हैं? हमारे न पढ़ने का तो फिर भी एक जायज कारण है कि एयर लाईन ने अलसेट दे दी तो क्या करें?
अब आप सोच रहे होंगे कि हम मूँह काहे छिपा रहे हैं?
काल्पनिक तौर पर यह मान भी लिया जाये कि लोग दान दक्षिणा देकर हमें बुलाकर अपने लोकार्पण को अंतर्राष्ट्रीय बना भी लेंगे तो भी उन्हें हम क्या मूँह दिखायेंगे?
दरअसल, रिवाज यह है कि तू मेरी पुस्तक के लोकार्पण में आ और मैं तेरी में..तू मेरी पुस्तक खरीद और मैं तेरी...तू मेरी तारीफ करना और मैं तेरी...तू मेरे साथ सेल्फी उतारना और मैं तेरे साथ... तू भी खूश रहना और मैं भी खुश,,,,
मगर मेरी तकलीफ का क्या..कोई समझे तो बताऊँ...साल भर लिखते रहे..अखबारों और पत्रिकाओं में छपते रहे मगर किताब...ऊँ ऊँ ऊऊऊऊऊ ऊऊऊऊऊऊऊऊउ..छपी ही नहीं...तो किस बात का लोकार्पण और किस बात का आमंत्रण?
ठेले पर मेला सजा लें क्या अपने ही घर में कनाड़ा में?..अखबार की कटिग एक दूसरे के साथ नत्थी करा के...कि आओ भई हमारे ठेले पर..हमारा ठेला..अहसासो पुस्तक मेला...अखबारी लाल का ख्याल..:)
एक ठेला..पूरा पुस्तक मेला...बिना छपे इससे ज्यादा क्या पेश करुँ?
बस ठेला सजा है और गाना लगा देता हूँ पुराने ग्रामोफोन पर...
रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ...
अब बाताओ..
इससे बड़ी बारात क्या पेश करुँ?
-समीर लाल समीर

पल पल इंडिया में सोमवार ८ जनवरी, २०१८ में प्रकाशित:

http://palpalindia.com/2018/01/08/sarokar-Sameer-Lal-Rang-and-Noor-procession-child-neighbor-doctor-news-in-hindi-224289.html

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3 टिप्‍पणियां:

संध्या शर्मा ने कहा…

बहुत खूब दास्ताँ मेले की :)

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’ऐतिहासिकता को जीवंत बनाते वृन्दावन लाल वर्मा : ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

बवाल ने कहा…

इसीलिए कहते देश को 20 साल तक नहीं छोड़ना चाहिए। अकेले आने में तो 1500 डॉलर गिन गए बारात का तो फिर भगवान ही मालिक है। हा हा। जय हो सरजी मिसिंग यू आ लॉट।