गुरुवार, मई 08, 2008

मेरी कामना!!

Pipe copy

मेरा घर

उस बड़े से पाईप के अंदर

जो सामने ओवर ब्रिज के नीचे लगना था

आज उजड़ गया....

ब्रिज बन कर तैयार हो गया

शहर के विकास का जीता जागता प्रमाण

और मैं और मेरा परिवार

नये घर की तलाश में हूँ....

यह शहर विकसित होता रहे...

बस, कभी विकसित न हो..

नये पाईप गिरें..

मुझे नया घरोंदा मिले...

यही कामना है-


--समीर लाल ’समीर’

(विकासशील मानसिकता भी विकसित होने में बाधक है शायद?
देश/ शहर बस विकसित होता रहे-हमारे नेता भी तो यही चाहते हैं यह एक क्रिया ही बनी रहे, संज्ञा न बन पाये)
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42 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

यह तो उस की आवश्यकता है, कामना तो कुछ और ही होगी।

Batangad ने कहा…

मन भरा नहीं। इसको थोड़ा और विस्तार दें। मुंबई में तो झुग्गी से एक कमरे के फ्लैट का विकास-- पूरा-पूरा धंधा है सर।

Rajesh Roshan ने कहा…

विकसित होने और विकसित के बीच की जो दूरी है कई लोग उसी मजा लेते हैं.यह एक जड़ मानसिकता है जिससे कुछ लोग बाहर नही निकलना चाहते. यही इनकी क्रिया है

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

समीर जी, विसंगति की विद्रूपता सही ढंग से उकेरी आपने पर विडम्बना ये है कि मानना कोई चाहता ही नहीं. खैर........

Unknown ने कहा…

शहर के विकास के साथ घरों का उजड़ना वास्तव में दुखदायी है। सच्चा विकास तो वही है जिसमें घर उजड़ने के बजाय बेघरों को नया घर मिलें।

आइये प्रतीक्षा करें उस समय का जब सच्चा विकास होगा।

Arun Arora ने कहा…

लगता है भारत आकर कवि मालिश कराने मे मशगूल हो गया था. कनाडा जाते ही कविताये निकलनी शुरू हो गई जी. थोडी सी हवाये इधर भी कोरियर कर दो,ताकी हम भी कवि बन सके..:)
बहुत शानदार कविता.दिल को छूती हुई

ALOK PURANIK ने कहा…

मार्मिक है जी।

Kirtish Bhatt ने कहा…

यह शहर विकसित होता रहे...
बस, कभी विकसित न हो..

वाह ! वाह ! बहुत खूब.

राजीव रंजन प्रसाद ने कहा…

कविता जितनी मार्मिक है चित्र उतना ही जीवंत।

***राजीव रंजन प्रसाद

डॉ .अनुराग ने कहा…

आज आपका अलग रूप देखने को मिला....अच्छा लगा.....पर चित्र देखकर अजीब सी उदासी पसर गई......

कुश ने कहा…

kaafi gahri baat..

Saee_K ने कहा…

pehli baar padha aap ko..

ek jwalant vishay..uska dusra pehlu..ya yu kahe wo pehlu jise ham dekh kar bhi andekha kartein hai..vishay aur sundar kavita ke liye..badhai..

likhte rahe..

rakhshanda ने कहा…

bahut sundar kavita,vikas ke sach ko dikhaati huyi..

बेनामी ने कहा…

apni rachnao aur bato me aap aksar aise kai sawal utha dete hain jinka jawab khojna bada mushkil ho jata hai

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

आपकी भावनाओं की कद्र करते हुये नगरपालिकायें आपनी अक्षमता का स्तर बनाये रखेंगी। अधिकांशत: पाइप बने रहेंगे।

अजित वडनेरकर ने कहा…

बहुत सुंदर , बहुत विचारशील पंक्तियां....

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

atyanta samvedanshil rachana

Unknown ने कहा…

विकास के एक पाईप पर एक घर बना और पाईप दर पाईप कितने विकास के ओवरसिअर बने - बड़ा बढ़िया विषय लिखा है दुविधा का विकास, विकास की सुविधा के बीच जीता हुआ - सादर - मनीष

संजय बेंगाणी ने कहा…

यह सतत चलने वाली क्रिया है.

Abhishek Ojha ने कहा…

जी हाँ बिल्कुल ठीक है... विकसित होता रहे, पर विकसित ना हो...

वैसे भी अगर विकसित हो गया तो बुश साहब तो अपने खाने की चिंता मर से ही मर जायेंगे . :-)

mamta ने कहा…

ये जिंदगी का कड़वा सच है। छोटी पर बहुत ही प्रभावशाली रचना।

पारुल "पुखराज" ने कहा…

hmmm..kya kahuun? aisa chitr sadaa udaas kar jaataa hai..bahut acchha kahaa aaj aapney..

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

ख्वाज़ा अहमद अब्बास साहब की एक फिल्म आयी थी , " शहेर और सपना " उसकी याद आ गयी
समीर भाई ....
जबरदस्त भाव उभरवाने की प्रक्रिया करवाती आपकी ये कविता आपकी सँवेदनाशीलता की गवाही दे रही है -
- इसी तरह लिखते रहेँ -
स्नेह्,
- लावण्या

बेनामी ने कहा…

अछ्छी कविता... विकास नाम के सिक्के का यह दूसरा पहलू है.

samagam rangmandal ने कहा…

जिंदगी रास्ता ढूंढ लेगी......

bhuvnesh sharma ने कहा…

विकास की भी अपनी विडंबनाएं हैं

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

कभी भीड़ के साथ बहूँ यह मेरी आदत बनी नहीं है
इस रचना में हम सब ही की छुपी हुई कुछ कमी कहीं है
हम ही तो कारण हैं, जिससे कोई घर होता पाईप में
बरस-दर-बरस वादों वाली बनी इमारत ढही नहीं है
राकेश खंडेलवाल

मैथिली गुप्त ने कहा…

आप तो एकदम दिल को भिगो देते हैं

समयचक्र ने कहा…

गरीबी का घरौदा देखकर एक सटीक सत्य का आभाष होता है और इस सत्य को पोस्ट मे सुन्दरता के साथ उकेरा है सराहनीय है . आज के नेताओ को गरीबो से क्या लेना देना बस उनके पद और घर का विकास होता रहे . दुर्भाग्य का विषय है कि आज भी करोडो लोगो को अपना जीवन यापन कर रहे है . आज वे रोजी रोटी और मकान (छाया से ) से वंचित है . आज भी खुले असमान के नीचे लाखो लोग रहने को विवश है . आभार

Unknown ने कहा…

आश्चर्य,कनाडा में बैठकर भी आप हिंदुस्तानियों के बारें में इतना कुछ सोच लेते हैं। बहुत अच्छा लगता है।

राज भाटिय़ा ने कहा…

यह भी जिन्दगी का ही एक रुप हे,आप की कविता ओर यह चित्र सच मे एक विचार दिमाग मे छोड गये,धन्यवाद.

Ila's world, in and out ने कहा…

मार्मिक प्रस्तुति, दिल को छू लेने वाला चित्र.विदेश पहुंच कर भी देश के पाइप नही भूले आप.

Neeraj Badhwar ने कहा…

समीर जी मुझे लगता है इस देश में गरीब आदमी ही वो पाइप है जिससे हो कर कथित विकास की धारा बहती है।

असहज हालात का सहज वर्णन! बहुत अच्छा।

मीनाक्षी ने कहा…

मानव की माया या प्रभु की लीला कहें -
गति है बल है विनाश की ,
अमृतधारा भी बनती विकास की.

Asha Joglekar ने कहा…

विकासशील और विकसित दो सर्वथा अलग दुनियाएँ हैं। आपकी कविता कहीं न कहीं उदास कर जाती है।

नीरज गोस्वामी ने कहा…

घर अपना है ये जग सारा
बिन दीवारें बिन चौबारा
बहुत समसामयिक रचना...
नीरज

Gee ने कहा…

बहुत सुंदर

Reetesh Gupta ने कहा…

बढ़िया है लालाजी...अच्छी लगी आपकी कविता

अजय कुमार झा ने कहा…

in baaton ko isse jyaadaa saraltaa se aur itne maarmik tareeke se shaayad dhartee kaa koi prani nahin keh saktaa tha udantshtaree jee.

pallavi trivedi ने कहा…

bahut achchi lagi aapki kavita...sach hai ye aaj ka.

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

आज भी विकासशील और विकसित के बीच की दूरी को मापने के बड़े-बड़े और खोखले वादे किए जाते रहे हैं , मगर विकास के नाम पर वही ढाक के तीन पात ! आइये प्रतीक्षा करें उस समय का जब सही विकास देखने को मिलेगा !

राकेश जैन ने कहा…

zindagi thukrati rahi, zindagi bhar hume..
hum hausla na har kar, uske usulon ko thukrate rahe..
zindgi nishchit hi sangharsh ka unman hai, apne un gareebon ke lie apni shabda shakti di, ye shabda pind unke lie chhat ho jayenge..